Read the New Testament in 24 Weeks
पौलुस भी दूसरे प्रेरितों जैसा ही है
9 क्या मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ? क्या मैं भी एक प्रेरित नहीं हूँ? क्या मैंने हमारे प्रभु यीशु मसीह के दर्शन नहीं किये हैं? क्या तुम लोग प्रभु में मेरे ही कर्म का परिणाम नहीं हो? 2 चाहे दूसरों के लिये मैं प्रेरित न भी होऊँ—तो भी मैं तुम्हारे लियेतो प्रेरित हूँ ही। क्योंकि तुम एक ऐसी मुहर के समान हो जो प्रभु में मेरे प्रेरित होने को प्रमाणित करती है।
3 वे लोग जो मेरी जाँच करना चाहते हैं, उनके प्रति आत्मरक्षा में मेरा उत्तर यह है: 4 क्या मुझे खाने पीने का अधिकार नहीं है? 5 क्या मुझे यह अधिकार नहीं कि मैं अपनी विश्वासिनी पत्नी को अपने साथ ले जाऊँ? जैसा कि दूसरे प्रेरित, प्रभु के बन्धु और पतरस ने किया है। 6 अथवा क्या बरनाबास और मुझे ही अपनी आजीविका कमाने के लिये कोई काम करना चाहिए? 7 सेना में ऐसा कौन होगा जो अपने ही खर्च पर एक सिपाही के रूप में काम करे। अथवा कौन हौगा जो अंगूर की बगीया लगाकर भी उसका फल न चखे? या कोई ऐसा है जो भेड़ों के रेवड़ की देखभाल तो करता हो पर उनका थोड़ा बहुत भी दूध न पीता हो?
8 क्या मैं मानवीय चिन्तन के रूप में ही ऐसा कह रहा हूँ? आखिरकार क्या व्यवस्था का विधान भी ऐसा ही नहीं कहता? 9 मूसा की व्यवस्था के विधान में लिखा है, “खलिहान में बैल का मुँह मत बाँधो।”(A) परमेश्वर क्या केवल बैलों के बारे में बता रहा है? 10 नहीं! निश्चित रूप से वह इसे क्या हमारे लिये नहीं बता रहा? हाँ, यह हमारे लिये ही लिखा गया था। क्योंकि खेत जोतने वाला किसी आशा से ही खेत जोतने और खलिहान में भूसे से अनाज अलग करने वाला फसल का कुछ भाग पाने की आशा तो रखेगा ही। 11 फिर यदि हमने तुम्हारे हित के लिये आध्यात्मिकता के बीज बोये हैं तो हम तुमसे भौतिक वस्तुओं की फसल काटना चाहते हैं, यह क्या कोई बहुत बड़ी बात है? 12 यदि दूसरे लोग तुमसे भौतिक वस्तुएँ पाने का अधिकार रखते हैं तो हमारा तो तुम पर क्या और भी अधिक अधिकार नहीं है? किन्तु हमने इस अधिकार का उपयोग नहीं किया है। बल्कि हम तो सब कुछ सहते रहे हैं ताकि हम मसीह सुसमाचार के मार्ग में कोई बाधा न डाल दें। 13 क्या तुम नहीं जानते कि जो लोग मन्दिर में काम करते हैं, वे अपना भोजन मन्दिर से ही पाते हैं। और जो नियमित रूप से वेदी की सेवा करते हैं, वेदी के चढ़ावे में उनका हिस्सा होता है? 14 इसी प्रकार प्रभु ने व्यवस्था दी है कि सुसमाचार के प्रचारकों की आजीविका सुसमाचार के प्रचार से ही होनी चाहिये।
15 किन्तु इन अधिकारों में से मैंने एक का भी कभी प्रयोग नहीं किया। और ये बातें मैंने इसलिए लिखी भी नहीं हैं कि ऐसा कुछ मेरे विषय में किया जाये। बजाय इसके कि कोई मुझ से उस बात को ही छीन ले जिसका मुझे गर्व है। इस से तो मैं मर जाना ही ठीक समझूँगा। 16 इसलिए यदि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ तो इसमें मुझे गर्व करने का कोई हेतु नहीं है क्योंकि मेरा तो यह कर्तव्य है। और यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ तो मेरे लिए यह कितना बुरा होगा। 17 फिर यदि यह मैं अपनी इच्छा से करता हूँ तो मैं इसका फल पाने योग्य हूँ, किन्तु यदि अपनी इच्छा से नहीं बल्कि किसी नियुक्ति के कारण यह काम मुझे सौंपा गया है 18 तो फिर मेरा प्रतिफल काहे का। इसलिए जब मैं सुसमाचार का प्रचार करूँ तो बिना कोई मूल्य लिये ही उसे करूँ। ताकि सुसमाचार के प्रचार में जो कुछ पाने का मेरा अधिकार है, मैं उसका पूरा उपयोग न करूँ।
19 यद्यपि मैं किसी भी व्यक्ति के बन्धन में नहीं हूँ, फिर भी मैंने स्वयं को आप सब का सेवक बना लिया है। ताकि मैं अधिकतर लोगों को जीत सकूँ। 20 यहूदियों के लिये मैं एक यहूदी जैसा बना, ताकि मैं यहूदियों को जीत सकूँ। जो लोग व्यवस्था के विधान के अधीन हैं, उनके लिये मैं एक ऐसा व्यक्ति बना जो व्यवस्था के विधान के अधीन जैसा है। यद्यपि मैं स्वयं व्यवस्था के विधान के अधीन नहीं हूँ। यह मैंने इसलिए किया कि मैं व्यवस्था के विधान के अधीनों को जीत सकूँ। 21 मैं एक ऐसा व्यक्ति भी बना जो व्यवस्था के विधान को नहीं मानता। यद्यपि मैं परमेश्वर की व्यवस्था से रहित नहीं हूँ बल्कि मसीह की व्यवस्था के अधीन हूँ। ताकि मैं जो व्यवस्था के विधान को नहीं मानते हैं उन्हें जीत सकूँ। 22 जो दुर्बल हैं, उनके लिये मैं दुर्बल बना ताकि मैं दुर्बलों को जीत सकूँ। हर किसी के लिये मैं हर किसी के जैसा बना ताकि हर सम्भव उपाय से उनका उद्धार कर सकूँ। 23 यह सब कुछ मैं सुसमाचार के लिये करता हूँ ताकि इसके वरदानों में मेरा भी कुछ भाग हो।
24 क्या तुम लोग यह नहीं जानते कि खेल के मैदान में दौड़ते तो सभी धावक हैं किन्तु पुरस्कार किसी एक को ही मिलता है। एैसे दौड़ो कि जीत तुम्हारी ही हो! 25 किसी खेल प्रतियोगिता में प्रत्येक प्रतियोगी को हर प्रकार का आत्मसंयम करना होता है। वे एक नाशमान जयमाल से सम्मानित होने के लिये ऐसा करते हैं किन्तु हम तो एक अविनाशी मुकुट को पाने के लिये यह करते हैं। 26 इस प्रकार मैं उस व्यक्ति के समान दौड़ता हूँ जिसके सामने एक लक्ष्य है। मैं हवा में मुक्के नहीं मारता। 27 बल्कि मैं तो अपने शरीर को कठोर अनुशासन में तपा कर, उसे अपने वश में करता हूँ। ताकि कहीं ऐसा न हो जाय कि दूसरों को उपदेश देने के बाद परमेश्वर के द्वारा मैं ही व्यर्थ ठहरा दिया जाऊँ!
यहूदियों जैसे मत बनो
10 हे भाईयों, मैं चाहता हूँ कि तुम यह जान लो कि हमारे सभी पूर्वज बादल की छत्र छाया में सुरक्षा पूर्वक लाल सागर पार कर गए थे। 2 उन सब को बादल के नीचे, समुद्र के बीच मूसा के अनुयायियों के रूप में बपतिस्मा दिया गया था। 3 उन सभी ने समान आध्यात्मिक भोजन खाया था। 4 और समान आध्यात्मिक जल पिया था क्योंकि वे अपने साथ चल रही उस आध्यात्मिक चट्टान से ही जल ग्रहण कर रहे थे। और वह चट्टान थी मसीह। 5 किन्तु उनमें से अधिकांश लोगों से परमेश्वर प्रसन्न नहीं था, इसीलिए वे मरुभूमि में मारे गये।
6 ये बातें ऐसे घटीं कि हमारे लिये उदाहरण सिद्ध हों और हम बुरी बातों की कामना न करें जैसे उन्होंने की थी। 7 मूर्ति-पूजक मत बनो, जैसे कि उनमें से कुछ थे। शास्त्र कहता है: “व्यक्ति खाने पीने के लिये बैठा और परस्पर आनन्द मनाने के लिए उठा।” 8 सो आओ हम कभी व्यभिचार न करें जैसे उनमें से कुछ किया करते थे। इसी नाते उनमें से 23,000 व्यक्ति एक ही दिन मर गए। 9 आओ हम मसीह[a] की परीक्षा न लें, जैसे कि उनमें से कुछ ने ली थी। परिणामस्वरूप साँपों के काटने से वे मर गए। 10 शिकवा शिकायत मत करो जैसे कि उनमें से कुछ किया करते थे और इसी कारण विनाश के स्वर्गदूत द्वारा मार डाले गए।
11 ये बातें उनके साथ ऐसे घटीं कि उदाहरण रहे। और उन्हें लिख दिया गया कि हमारे लिए जिन पर युगों का अन्त उतरा हुआ है, चेतावनी रहे। 12 इसलिए जो यह सोचता है कि वह दृढ़ता के साथ खड़ा है, उसे सावधान रहना चाहिये कि वह गिर न पड़े। 13 तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े हो, जो मनुष्यों के लिये सामान्य नहीं है। परमेश्वर विश्वसनीय है। वह तुम्हारी सहन शक्ति से अधिक तुम्हें परीक्षा में नहीं पड़ने देगा। परीक्षा के साथ साथ उससे बचने का मार्ग भी वह तुम्हें देगा ताकि तुम परीक्षा को उत्तीर्ण कर सको।
14 हे मेरे प्रिय मित्रो, अंत में मैं कहता हूँ मूर्ति उपासना से दूर रहो। 15 तुम्हें समझदार समझ कर मैं ऐसा कह रहा हूँ। जो मैं कह रहा हूँ, उसे अपने आप परखो। 16 धन्यवाद का वह प्याला जिसके लिये हम धन्यवाद देते हैं, वह क्या मसीह के लहू में हमारी साझेदारी नहीं है? वह रोटी जिसे हम विभाजित करते हैं, क्या यीशु की देह में हमारी साझेदारी नहीं?
17 रोटी का होना एक ऐसा तथ्य है, जिसका अर्थ है कि हम सब एक ही शरीर से हैं। क्योंकि उस एक रोटी में ही हम सब साझेदार हैं।
18 उन इस्राएलियों के बारे में सोचो, जो बलि की वस्तुएँ खाते हैं। क्या वे उस वेदी के साझेदार नहीं हैं? 19 इस बात को मेरे कहने का प्रयोजन क्या है? क्या मैं यह कहना चाहता हूँ कि मूर्तियों पर चढ़ाया गया भोजन कुछ है या कि मूर्ति कुछ भी नहीं है। 20 बल्कि मेरी आशा तो यह है कि वे अधर्मी जो बलि चढ़ाते हैं, वे उन्हें परमेश्वर के लिये नहीं, बल्कि दुष्ट आत्माओं के लिये चढ़ाते हैं। और मैं नहीं चाहता कि तुम दुष्टात्माओं के साझेदार बनो। 21 तुम प्रभु के कटोरे और दुष्टात्माओं के कटोरे में से एक साथ नहीं पी सकते। तुम प्रभु के भोजन की चौकी और दुष्टात्माओं के भोजन की चौकी, दोनों में एक साथ हिस्सा नहीं बटा सकते। 22 क्या हम प्रभु को चिढ़ाना चाहते हैं? क्या जितना शक्तिशाली वह है, हम उससे अधिक शक्तिशाली हैं?
अपनी स्वतन्त्रता का प्रयोग परमेश्वर की महिमा के लिये करो
23 जैसा कि कहा गया है कि, “हम कुछ भी करने के लिये स्वतन्त्र हैं।” पर सब कुछ हितकारी तो नहीं है। “हम कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हैं” किन्तु हर किसी बात से विश्वास सुदृढ़ तो नहीं होता। 24 किसी को भी मात्र स्वार्थ की ही चिन्ता नहीं करनी चाहिये बल्कि औरों के परमार्थ की भी सोचनी चाहिये।
25 बाजार में जो कुछ बिकता है, अपने अन्तर्मन के अनुसार वह सब कुछ खाओ। उसके बारे में कोई प्रश्न मत करो। 26 क्योंकि शास्त्र कहता है: “यह धरती और इस पर जो कुछ है, सब प्रभु का है।”(B)
27 यदि अविश्वासियों में से कोई व्यक्ति तुम्हें भोजन पर बुलाये और तुम वहाँ जाना चाहो तो तुम्हारे सामने जो भी परोसा गया है, अपने अन्तर्मन के अनुसार सब खाओ। कोई प्रश्न मत पूछो। 28 किन्तु यदि कोई तुम लोगों को यह बताये, “यह देवता पर चढ़ाया गया चढ़ावा है” तो जिसने तुम्हें यह बताया है, उसके कारण और अपने अन्तर्मन के कारण उसे मत खाओ।
29 मैं जब अन्तर्मन कहता हूँ तो मेरा अर्थ तुम्हारे अन्तर्मन से नहीं बल्कि उस दूसरे व्यक्ति के अन्तर्मन से है। एकमात्र यही कारण है। क्योंकि मेरी स्वतन्त्रता भला दूसरे व्यक्ति के अन्तर्मन द्वारा लिये गये निर्णय से सीमित क्यों रहे? 30 यदि मैं धन्यवाद देकर, भोजन में हिस्सा लेता हूँ तो जिस वस्तु के लिये मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ, उसके लिये मेरी आलोचना नहीं की जानी चाहिये।
31 इसलिए चाहे तुम खाओ, चाहे पिओ, चाहे कुछ और करो, बस सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो। 32 यहूदियों के लिये या ग़ैर यहूदियों के लिये या जो परमेश्वर के कलीसिया के हैं, उनके लिये कभी बाधा मत बनो 33 जैसे स्वयं हर प्रकार से हर किसी को प्रसन्न रखने का जतन करता हूँ, और बिना यह सोचे कि मेरा स्वार्थ क्या है, परमार्थ की सोचता हूँ ताकि उनका उद्धार हो।
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