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Read the New Testament in 24 Weeks

A reading plan that walks through the entire New Testament in 24 weeks of daily readings.
Duration: 168 days
Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)
Version
रोमियों 11-12

परमेश्वर अपने लोगों को नहीं भूला

11 तो मैं पूछता हूँ, “क्या परमेश्वर ने अपने ही लोगों को नकार नहीं दिया?” निश्चय ही नहीं। क्योंकि मैं भी एक इस्राएली हूँ, इब्राहीम के वंश से और बिन्यामीन के गोत्र से हूँ। परमेश्वर ने अपने लोगों को नहीं नकारा जिन्हें उसने पहले से ही चुना था। अथवा क्या तुम नहीं जानते कि एलिय्याह के बारे में शास्त्र क्या कहता है: कि जब एलिय्याह परमेश्वर से इस्राएल के लोगों के विरोध में प्रार्थना कर रहा था? “हे प्रभु, उन्होंने तेरे नबियों को मार डाला। तेरी वेदियों को तोड़ कर गिरा दिया। केवल एक नबी मैं ही बचा हूँ और वे मुझे भी मार डालने का जतन कर रहे हैं।”(A) किन्तु तब परमेश्वर ने उसे कैसे उत्तर दिया था, “मैंने अपने लिए सात हजार लोग बचा रखे हैं जिन्होंने बाल के आगे माथा नहीं टेका।”(B)

सो वैसे ही आज कल भी कुछ ऐसे लोग बचे हैं जो उसके अनुग्रह के कारण चुने हुए हैं। और यदि यह परमेश्वर के अनुग्रह का परिणाम है तो लोग जो कर्म करते हैं, यह उन कर्मों का परिणाम नहीं है। नहीं तो परमेश्वर की अनुग्रह, अनुग्रह ही नहीं ठहरती।

तो इससे क्या? इस्राएल के लोग जिसे खोज रहे थे, वे उसे नहीं पा सके। किन्तु चुने हुओं को वह मिल गया। जबकि बाकी सब को कठोर बना दिया गया। शास्त्र कहता है:

“परमेश्वर ने उन्हें एक चेतना शून्य आत्मा प्रदान की।”(C)

“ऐसी आँखें दीं जो देख नहीं सकती थीं
    और ऐसे कान दिए जो सुन नहीं सकते थे।
और यही दशा ठीक आज तक बनी हुई है।”(D)

दाऊद कहता है:

“अपने ही भोजनों में फँसकर वे बंदी बन जाएँ
    उनका पतन हो और उन्हें दण्ड मिले।
10 उनकी आँखें धुँधली हो जायें ताकि वे देख न सकें
    और तू उनकी पीड़ाओं तले, उनकी कमर सदा-सदा झुकाए रखें।”(E)

11 सो मैं कहता हूँ क्या उन्होंने इसलिए ठोकर खाई कि वे गिर कर नष्ट हो जायें? निश्चय ही नहीं। बल्कि उनके गलती करने से ग़ैर यहूदी लोगों को छुटकारा मिला ताकि यहूदियों में स्पर्धा पैदा हो। 12 इस प्रकार यदि उनके गलती करने का अर्थ सारे संसार का बड़ा लाभ है और यदि उनके भटकने से ग़ैर यहूदियों का लाभ है तो उनकी सम्पूर्णता से तो बहुत कुछ होगा।

13 यह अब मैं तुमसे कह रहा हूँ, जो यहूदी नहीं हो, क्योंकि मैं विशेष रूप से ग़ैर यहूदियों के लिये प्रेरित हूँ, मैं अपने काम के प्रति पूरा प्रयत्नशील हूँ। 14 इस आशा से कि मैं अपने लोगों में भी स्पर्धा जगा सकूँ और उनमें से कुछ का उद्धार करूँ। 15 क्योंकि यदि परमेश्वर के द्वारा उनके नकार दिये जाने से जगत में परमेश्वर के साथ मेलपिलाप पैदा होता है तो फिर उनका अपनाया जाना क्या मरे हुओं में से जिलाया जाना नहीं होगा? 16 यदि हमारी भेंट का एक भाग पवित्र है तो क्या वह समूचा ही पवित्र नहीं है? यदि पेड़ की जड़ पवित्र है तो उसकी शाखाएँ भी पवित्र हैं।

17 किन्तु यदि कुछ शाखाएँ तोड़ कर फेंक दी गयीं और तू जो एक जँगली जैतून की टहनी है उस पर पेबंद चढ़ा दिया जाये और वह जैतून के अच्छे पेड़ की जड़ों की शक्ति का हिस्सा बटाने लगे, 18 तो तुझे उन टहनियों के आगे, जो तोड़ कर फेंक दी गयी, अभिमान नहीं करना चाहिये। और यदि तू अभिमान करता है तो याद रख यह तू नहीं हैं जो जड़ों को पाल रहा हैं, बल्कि यह तो वह जड़ ही है जो तुझे पाल रही है। 19 अब तू कहेगा, “हाँ, किन्तु शाखाएँ इसलिए तोड़ीगयीं कि मेरा पेबंद चढ़े।” 20 यह सत्य है, वे अपने अविश्वास के कारण तोड़ फेंकी गयीं किन्तु तुम अपने विश्वास के बल पर अपनी जगह टिके रहे। इसलिए इसका गर्व मत कर बल्कि डरता रह। 21 यदि परमेश्वर ने प्राकृतिक डालियाँ नहीं रहने दीं तो वह तुझे भी नहीं रहने देगा।

22 इसलिए तू परमेश्वर की कोमलता को देख और उसकी कठोरता पर ध्यान दे। यह कठोरता उनके लिए है जो गिर गये किन्तु उसकी करुणा तेरे लिए है यदि तू अपने पर उसका अनुग्रह बना रहने दे। नहीं तो पेड़ से तू भी काट फेंका जायेगा। 23 और यदि वे अपने अविश्वास में न रहे तो उन्हें भी फिर पेड़ से जोड़ लिया जायेगा क्योंकि परमेश्वर समर्थ है कि उन्हें फिर से जोड़ दे। 24 जब तुझे प्राकृतिक रूप से जंगली जैतून के पेड़ से एक शाखा की तरह काट कर प्रकृति के विरुद्ध एक उत्तम जैतून के पेड़ से जोड़ दिया गया, तो ये जो उस पेड़ की अपनी डालियाँ हैं, अपने ही पेड़ में आसानी से, फिर से क्यों नहीं जोड़ दी जायेंगे।

25 हे भाईयों! मैं तुम्हें इस छिपे हुए सत्य से अंजान नहीं रखना चाहता, कि तुम अपने आप को बुद्धिमान समझने लगो कि इस्राएल के कुछ लोग ऐसे ही कठोर बना दिए गए हैं और ऐसे ही कठोर बने रहेंगे जब तक कि काफी ग़ैर यहूदी परमेश्वर के परिवार के अंग नहीं बन जाते। 26 और इस तरह समूचे इस्राएल का उद्धार होगा। जैसा कि शास्त्र कहता है:

“उद्धार करने वाला सिय्योन से आयेगा;
    वह याकूब के परिवार से सभी बुराइयाँ दूर करेगा।
27 मेरा यह वाचा उनके साथ
    तब होगा जब मैं उनके पापों को हर लूँगा।”(F)

28 जहाँ तक सुसमाचार का सम्बन्ध है, वे तुम्हारे हित में परमेश्वर के शत्रु हैं किन्तु जहाँ तक परमेश्वर द्वारा उनके चुने जाने का सम्बन्ध है, वे उनके पुरखों को दिये वचन के अनुसार परमेश्वर के प्यारे हैं। 29 क्योंकि परमेश्वर जिसे बुलाता है और जिसे वह देता है, उसकी तरफ़ से अपना मन कभी नहीं बदलता। 30 क्योंकि जैसे तुम लोग पहले कभी परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानते थे किन्तु अब तुम्हें उसकी अवज्ञाके कारण परमेश्वर की दया प्राप्त है। 31 वैसेही अब वे उसकी आज्ञा नहीं मानते क्योंकि परमेश्वर की दया तुम पर है। ताकि अब उन्हें भी परमेश्वर की दया मिले। 32 क्योंकि परमेश्वर ने सब लोगों को अवज्ञा के कारागार में इसलिए डाल रखा है कि वह उन पर दया कर सके।

परमेश्वर धन्य है

33 परमेश्वर की करुणा, बुद्धि और ज्ञान कितने अपरम्पार हैं। उसके न्याय कितने गहन हैं; उसके रास्ते कितने गूढ़ है। 34 शास्त्र कहता है:

“प्रभु के मन को कौन जानता है?
    और उसे सलाह देने वाला कौन हो सकता हैं?”(G)

35 “परमेश्वर को किसी ने क्या दिया है?
    कि वह किसी को उसके बदले कुछ दे।”(H)

36 क्योंकि सब का रचने वाला वही है। उसी से सब स्थिर है और वह उसी के लिए है। उसकी सदा महिमा हो! आमीन।

अपने जीवन प्रभु को अर्पण करो

12 इसलिए हे भाइयो परमेश्वर की दया का स्मरण दिलाकर मैं तुमसे आग्रह करता हूँ कि अपने जीवन एक जीवित बलिदान के रूप में परमेश्वर को प्रसन्न करते हुए अर्पित कर दो। यह तुम्हारी आध्यात्मिक उपासना है जिसे तुम्हें उसे चुकाना है। अब और आगे इस दुनिया की रीति पर मत चलो बल्कि अपने मनों को नया करके अपने आप को बदल डालो ताकि तुम्हें पता चल जाये कि परमेश्वर तुम्हारे लिए क्या चाहता है। यानी जो उत्तम है, जो उसे भाता है और जो सम्पूर्ण है।

इसलिए उसके अनुग्रह के कारण जो उपहार उसने मुझे दिया है, उसे ध्यान में रखते हुए मैं तुममें से हर एक से कहता हूँ, अपने को यथोचित समझो अर्थात जितना विश्वास उसने तुम्हें दिया है, उसी के अनुसार अपने को समझना चाहिए। क्योंकि जैसे हममें से हर एक के शरीर में बहुत से अंग हैं। चाहे सब अंगों का काम एक जैसा नहीं है। हम अनेक हैं किन्तु मसीह में हम एक देह के रूप में हो जाते हैं। इस प्रकार हर एक अंग हर दूसरे अंग से जुड़ जाता है।

तो फिर उसके अनुग्रह के अनुसार हमें जो अलग-अलग उपहार मिले हैं, हम उनका प्रयोग करें। यदि किसी को भविष्यवाणी की क्षमता दी गयी है तो वह उसके पास जितना विश्वास है उसके अनुसार भविष्यवाणी करे। यदि किसी को सेवा करने का उपहार मिला है तो अपने आप को सेवा के लिये अर्पित करे, यदि किसी को उपदेश देने का काम मिला है तो उसे अपने आप को प्रचार में लगाना चाहिए। यदि कोई सलाह देने को है तो उसे सलाह देनी चाहिए। यदि किसी को दान देने का उपहार मिला है तो उसे मुक्त भाव से दान देना चाहिए। यदि किसी को अगुआई करने का उपहार मिलता है तो वह लगन के साथ अगुआई करे, जिसे दया दिखाने को मिली है, वह प्रसन्नता से दया करे।

तुम्हारा प्रेम सच्चा हो। बुराई से घृणा करो। नेकी से जुड़ो। 10 भाई चारे के साथ एक दूसरे के प्रति समर्पित रहो। आपस में एक दूसरे को आदर के साथ अपने से अधिक महत्व दो। 11 उत्साही बनो, आलसी नहीं, आत्मा के तेज से चमको। प्रभु की सेवा करो। 12 अपनी आशा में प्रसन्न रहो। विपत्ति में धीरज धरो। निरन्तर प्रार्थना करते रहो। 13 परमेश्वर के लोगों की आवश्यकताओं में हाथ बटाओ। अतिथि सत्कार के अवसर ढूँढते रहो।

14 जो तुम्हें सताते हैं उन्हें आशीर्वाद दो। उन्हें शाप मत दो, आशीर्वाद दो। 15 जो प्रसन्न हैं उनके साथ प्रसन्न रहो। जो दुःखी है, उनके दुःख में दुःखी होओ। 16 मेलमिलाप से रहो। अभिमान मत करो बल्कि दीनों की संगति करो। अपने को बुद्धिमान मत समझो।

17 बुराई का बदला बुराई से किसी को मत दो। सभी लोगों की आँखों में जो अच्छा हो उसे ही करने की सोचो। 18 जहाँ तक बन पड़े सब मनुष्यों के साथ शान्ति से रहो। 19 किसी से अपने आप बदला मत लो। मेरे मित्रों, बल्कि इसे परमेश्वर के क्रोध पर छोड़ दो क्योंकि शास्त्र में लिखा है: “प्रभु ने कहा है बदला लेना मेरा काम है। प्रतिदान मैं दूँगा।”(I) 20 बल्कि तू तो

“यदि तेरा शत्रु भूखा है
    तो उसे भोजन करा।
यदि वह प्यासा है
    तो उसे पीने को दे।
क्योंकि यदि तू ऐसा करता है तो वह तुझसे शर्मिन्दा होगा।”(J)

21 बुराई से मत हार बल्कि अपनी नेकी से बुराई को हरा दे।

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